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रुगड़ा और खुखड़ी मेरा सबसे पसंदीता सब्जी है| 



जो कि हर साल बारिस के मौसम में मिलती है|जिसकी प्रचुर मात्रा प्राचिन मगध क्षेत्र के शाल वृक्ष के हरे भरे पहाड़ी क्षेत्रो में मिलती है|खासकर झारखंड,पश्चिम बंगाल छत्तीशगढ़ वगैरा वे इलाके जहाँ पर प्राकृतित खनिज संपदा का भंडार भी प्रचुर मात्रा में पायी जाती है|रुगड़ा को शाकाहारी खशी भी कहा जाता है, जो कि सुनने में मुझे अच्छा नही लगता है|क्योंकि मैं शाकाहारी हूँ और वैसे भी रुगड़ा जमिन के निचे उगने वाली शुद्ध शाकाहारी सब्जी है|इसलिये इसके साथ खुनभरी मांस की पहचान को जोड़ना वैसे भी ठीक नही है|पर चूँकि पुजा के समय जो की बारह माह चलती ही रहती है,किसी न किसी प्राकृत पर्व त्योहार के रुप में,उन सभी पर्व त्योहारो में सबसे खास कुछ पर्व त्योहारो में मांस मछली की बिक्री हिन्दुस्तान में खासकर सावन में कम हो जाती है|जिस दौरान रुगड़ा सब्जी सबसे स्वादिस्ठ शाकाहारी सब्जी और सबसे किमती भी होती है|जो कि सुरु सुरु जब बाजार में आती है तो इसकी किमत मांसाहारी खशी से ज्यादे होती है|बल्कि खुखड़ी की किमत तो उससे भी ज्यादे रहती है|हलांकि खुखड़ी का आधुनिक रुप मशरुम के रुप में शालोभर खुखड़ी से कम दामो में खाई जा सकती है|पर चूँकि जंगली खुखड़ी हर साल बारिस के मौसम में ही खाई जाती और मिलती भी है,इसलिये इसकी किमत सिधे आसमान से अंतरिक्ष को छुती है|और आज मैं रुगड़ा खुखड़ी के बारे में ही खासकर लिखने जा रहा हुँ|हलांकि इसके बारे में मैं ज्यादे कुछ नही बतलाउँगा,क्योंकि इसके बारे में गूगल सर्च करने पर अब आसानी से बहुत सारी जानकारी उपलब्ध है,जिसे आसानी से सर्च की जा सकती है|बल्कि कभी खास तौर से इसके बारे में ही विस्तार पुर्वक कभी मैं भी जरुर लिखूँगा इसलिये आज सिर्फ कुछ जरुरी बाते ही इसके बारे में लिख रहा हूँ|जिसमे रुगड़ा से जुड़ी एक बचपन की यादगार लम्हो के बारे में मैं बतलाना जरुर चाहूँगा जब मैं अपना बचपन से किशोर अवस्था का समय प्राकृत की गोद में गुजारा हूँ|दरसल बात उन दिनो कि है जब मेरी उम्र दस साल से निचे और पाँच साल से उपर की रही होगी जो यही कोई सात या आठ साल की रही होगी जब बचपन में हम दिनभर ज्यादेतर समय प्राकृत की हरी भरी गोद में गुजारते थे|जहाँ से हमे फ्री में दिनभर पेट भरने के लिये इतना ज्यादा कुछ मिल जाता था कि कभी घर जाकर खाने पिने की जरुरत महशुस ही नही होती थी सिवाय सुबह और रात के समय खाने की|तब मुझे याद है हमारे आस पास खाने पीने की प्राकृत चीजो की मुफ्त में कोई कमी नही थी बस उसे यदि हासिल करने की हुनर मौजुद हो तो हर मौसम में कोई न कोई ऐसी खाने की चीजे प्राकृत हमे दे देती थी जो आज भी वहाँ पर देती है|जिसे खाकर कोई बच्चा बुढ़ा और जवान कुपोषित तो कभी हो ही नही सकता ये मेरा निजि अनुभव है|पर सर्त है कि उसे हासिल करने की हुनर और दिलचस्पी मौजुद हो और इसके लिये जरुरी है कि आधुनिक शाईनिंग और डीजिटल इंडिया असंतुलित विकाश की होड़ में प्राकृत का विनाश करके प्राकृत द्वारा मुफ्त में दी जाने वाली सालोभर खाने की चीजे मिलने वाली हरियाली को नष्ट करके चारो ओर सिमेंट का जंगल सिर्फ न बनाया जाय|जैसा कि आजकल चारो तरफ शहरीकरन होकर विकाश के नाम से मुफ्त में प्राकृत से मिलने वाली खाने पीने की चीजे मिलना बंद होते जा रही है|जिस तरह की असंतुलित विकाश में राहगिरो को तो अब बिना जेब में कुछ भरे पेट भरने के लिये रास्तो और भिड़ भाड़ इलाको में प्राकृत खाने पिने की चीजे मिलना मुश्किल ही नही गायब होते जा रही है|क्योंकि विकाश के नाम से प्राकृत का विनाश और उसके जगह ऐसी ऐसी चीजे ज्यादेतर बनती जा रही है,जिससे सिर्फ धन के जरिये ही ज्यादेतर काम कराई ली जा सकती है |या फिर धन के जरिये ही खाने पीने की चीजे मिलेगी|क्योंकि डीजिटल सिमेंट का जंगल का हरी हरी नही उच्ची उच्ची महंगी मशीनी इमारतो और लंबी चौड़ी सालोभर सिर्फ इलाज कराती सड़को को तो नही खाई जा सकती है,और न ही विकाश की गंदगी से गंदी गंदी नालियो में तब्दील हो रही नदियो की पानी को जल ही जिवन है कहकर पी जा सकती है|और फिर राहगीर यदि खाली जेब भुखा प्यासा है तो वह अपने साथ में भी घर से लाया गया रखा अन्न जल तो वैसे भी बहुत मुश्किल से विकाश के बिच हो रहे भागदौड़ में मानो कुचले जाने वाली बुरे हालात में शांती से बैठकर खा सकता है|जिसके चलते अक्सर ये सुनने देखने और पढ़ने को मिलती है कि भागदौड़ में घर की खाने पिने की फुरसत ही कहाँ मिलती है|जिसके चलते सिर्फ फास्ट फुड की चीजो के नाम से ऐसी खाने पिने की चीजे उपलब्ध होते जा रही है,जोकि एक तो किसी भी गरिब अमिर दोनो को ही बिना पैसे के कभी मिल ही नही सकती,दुसरा यदि मिल भी गई तो उसे खा खाकर बहुत से लोग ऐसी असंतुलित मौत मरते जा रहे हैं,जीसे गरिबी भुखमरी के बिच में अति खा खाकर मरना कहना गलत नही होगा|जो कि भुखमरी से मरना तो नही कहलायेगा पर बहुत अच्छी खा पीकर मरना भी नही कहलायेगा|खैर मैं अब फिर से रुगड़ा में आता हूँ और अपनी बचपन की एक खाश घटना के बारे में सारांश में निजि जिवन की थोड़ी बहुत झांकी बतलाना चाहुँगा अपने बारे में और अपने बचपन की खान पान के बारे में|जो की अब भी मेरे ख्याल से नब्बे प्रतिशत किसी न किसी जरिये से उपलब्ध हो ही जाती है|जो इसलिये भी क्योंकि मैं अपने जिवन को अब भी प्राकृत की गोद से आई चीजो पर ही अधिक खिचा हुआ महसूश करता हूँ,बल्कि प्रयोगिक रुप से आज भी उन्ही सब चीजो को खोज और अपनाकर उनसे खास रिस्ता जोड़ा हुआ हूँ|मसलन आज मेरा घर में जो रुगड़ा का सब्जी बना था जो कि मेरा सबसे पसंदीता सब्जी है|जो साल में इसी समय अथवा बारिस के मौसम में ही मिलता है|वैसे तो रुगड़ा को शाकाहारी खशी के नाम से भी जाना जाता है और खशी से भी महंगा बिकता है,जिसे खशी से भी अधिक किमत देकर सुरु सुरु खरीदा जाता है|पर आज मेरे घर में जो रुगड़ा आया है,वह रास्ते का माल सस्ते में अथवा खशी की किमत से बहुत कम सौ रुपये किलो मिल गया है|हलांकि रुगड़ा को भिड़ भाड़ शहरी रास्ते से ही खरिदा गया है|वैसे रुगड़ा ज्यादेतर ग्रामीण इलाको में लगने वाली हाट बाजारो में ही ज्यादेतर बिकती है|पर चूँकि मुझे कुछ जानकारी मिली है कि अब इसकी मांग देश ही नही विदेशो में भी धिरे धिरे बड़ रही है|इसलिये भी सायद अब यह सब्जी अब शहरो की भिड़ भाड़ इलाके में भी हर साल बारिस के मौसम में रास्ते में टोकरी में फल फुल की तरह सजाकर बिकना फलो का राजा आम  की तरह आम हो गई है|क्योंकि जबतक पश्चिम के लोग हिन्दुस्तान के जंगली या ग्रामीण इलाको से आई सबसे खास चीजो को खाकर उसे अपने हाथो हिन्दुस्तान का ही खाना हिन्दुस्तान को ही वापस अपने तरिके से प्रचार प्रसार करके नही बेचते हैं,या उसकी जानकारी बांटते हैं,तबतक अक्सर उसे जंगली या ग्रामीण खाना माना जाता है|जो सत्य भी है,पर उस सत्य में ये भी नही भुलना चाहिए की कृषी प्रधान देश हिन्दुस्तान की आधुनिक ग्रामीण सभ्यता संस्कृती हजारो हुनरो और हजारो प्रकार की खान पान से उसी समय से ही जानी जाती रही है,जब आज खुदको सबसे आधुनिक कहने वाले तब के बहुत से कबिलई लोगो के कबिलई पुर्वजो को न तो कपड़ा पहनना आता होगा और न ही खेती करना आता होगा|मसाला और हजारो प्रकार के पकवान के बारे में जानना तो उसी प्रकार वे बाद में सिखे होंगे जैसे कि आलू से चिप्स बनाना कृषी देशो से ही सिखे होंगे|जो आलू का चिप्स आज कृषी देशो से ही कच्चा माल भरपुर मात्रा में आलू का भंडार खरिदकर उसे महंगी दामो में उन्हे अथवा कृषी देशो को ही सबसे आधुनिक शाईनिंग और डीजिटल खाने पिने की चीजो के रुप में आलू से बना चिप्स वगैरा बेचा जाता है|और चूँकि रुगड़ा भी सब्जी का राजा कहे जाने वाला आलू की तरह मिट्टी के निचे पाई जाती है,इसलिये यह बिना धोये बिकते समय मिट्टी से लिपटी रहती है तो मिट्टी से लिपटा छोटी छोटी आलू की तरह ही दिखती है|बस इसकी आकार छोटे छोटे बड़े हो रहे आलू के आकार में सीमित रहती है,जिससे की बड़ा नही होती है और न ही रुगड़ा की खेती आलू की तरह होती है|पर इसे धोकर बेचते समय छोटी छोटी सफेद सफेद अंडे की तरह दिखती है|जिसे समान्य रुप से सब्जी बनाते समय दो दो टुकड़ो में काटकर मसालेदार सब्जी के रुप में खाई जाती है|जिसके बारे में बहुत सी जानकारी गूगल सर्च करने पर मिल जायेगी| क्योंकि जैसा कि मैने बतलाया कि इसके बारे में अब बहुत सी जानकारी बांटी जा चुकि है|जो कि पहले न के बारे में लोगो को जानकारी मिलती होगी|मैं तो बचपन से ही हर साल रुगड़ा खाते आ रहा हूँ|और आज भी रुगड़ा का इंतजार करते हुए हर साल बारिस के मौसम में इसकी स्वाद जरुर चखता हूँ|हलांकि इसकी किमत  अथवा बाकि चिजो में महंगाई जिस तरह से बड़ रही है उससे भी कहीं ज्यादे अचानक से रुगड़ा की किमत बड़ी है|हलांकि चाहे कोई जितना गरिब हो पर भी वह यदि मांशाहारी है तो भी गरिब बीपीएल होने के बावजुद भी भले उसकी मासिक आय से भी ज्यादे किमत चार दिनो की चाँदनी रहिसी खान पान खशी मुर्गा वगैरा कि किमत उसके वश में खरिदने की नही रहती है,तो भी जिस तरह वह भी अपने जिवन में मिट मुर्गा खरिदकर जरुर कभी न कभी जरुर खाता रहता है,उसी तरह कोई शाकाहारी इंसान भी भले कितना गरिब हो,यदि वह शाकाहारी खशी के रुप में चर्चित रुगड़ा को बहुत ज्यादे पसंद करता है तो वह हर साल रुगड़ा कम ही सही पर जरुर खरिदकर अब भी खाता होगा|जबकि बचपन में मुझे याद है मैने प्राकृत की गोद में जिस हरी भरी पहाड़ी वादियो में बचपन से किशोर अवस्था का समय गुजारा है,वहाँ पर रुगड़ा खुखड़ी की इतनी प्रचुर मात्रा उपलब्ध थी कि रुगड़ा के मौसम में लगभग हर रोज ही रुगड़ा खुखड़ी खाने को मिल जाती थी|जहाँ पर आज भी पाई जाती है रुगड़ा खुखड़ी,बस अब वह खाई कम और बेची ज्यादे जाती होगी बाकि जरुरत की चीजो को पुरी करने के लिये|जिसे कहा जाय अब फास्ट फुड कहलाने वाली चीजो की जरुरत पुरा करने के लिये प्राकृत की गोद से मिली खान पान को ज्यादेतर बेचा जा रहा है उन लोगो को जिनकी जिवन से प्राकृत हरियाली और खेती किसानी नजारा कम होता जा रहा  है|जबकि बचपन में हम रुगड़ा खुखड़ी प्राकृत की गोद से खुद इकठा करते समय ये पहले तय करते थे कि किसे खाने के लिये घर ले जाय और किसे प्राकृत की गोद में ही थोड़ा खराब दिखने अथवा ज्यादे दिनो तक का होने पर उसे उसी जगह ही छोड़ दें जहाँ पर वह जमिन चिरकर उगी है|क्योंकि रुगड़ा उगने के बाद यदि जल्दी से बनाकर नही खाई जाय तो वह थोड़ी कम स्वाद लगती है|जैसे कि भिंडी को यदि ज्यादे देर के बाद उसके पौधे से तोड़कर सब्जी या भुजिया बनाकर नही खाया जाय तो वह पहले से बहुत कम स्वाद का ब्यंजन लगता है|दरसल रुगड़ा खुखड़ी जमिन चिरकर ही उगती है|जैसे कि मांसाहारी चूजा अंडा फोड़कर बाहर निकलता है|जिसे मांसाहारी लोग आजकल मुर्गा खाने के नाम से दरसल चंद दिनो या सायद एक दो महिने का चूजा को खाते हैं|जिसकी जिवित समय कटने से पहले आवाज को सुनकर जानी जा सकती है की वह मुर्गा नही बल्कि चिअप चिअप ...रोने वाला चूजा रहता है|जिसे अक्सर पता भी नही रहता है कि मांस बिकते समय उसका गर्दन पकड़कर उसके साथ क्या होने वाला है|जबकि जवान मुर्गा मुर्गी को जिवित में कोई व्यक्ती खुले में जल्दी से पकड़ भी नही पायेगा और यदि पकड़ेगा तो उसे काटते समय मुर्गा मुर्गी अपने आप को बचाने के लिये ज्यादे चिखेगा भी और रोयेगा भी|जबकि चूजे के साथ यैसा बहुत कम होता होगा,क्योंकि चूँकि चूजा की बुद्धी बल अथवा शरिर अभी विकसित हो रही होती है|जिसके मासूम शरिर के साथ मानो बाल हत्या हो जाता है|इसलिये उसे काटते समय काटने वालो को ज्यादे मेहनत नही करनी पड़ती है|और चूजो को जल्दी जल्दी ज्यादे से ज्यादे ग्राहको को काटकर देने के लिये चूजा काटने वाले मानो आलू प्याज काटने की तरह थोड़ी ही देर में जूजो की मांस का भंडार लगा देता हैं|जिसके किनारे चूजो की अतड़ी और नाजूक पाँव पंख मुंडी चमड़ा का भी अलग से भंडार लग जाती है|जिसे दाम लेकर अलग से बेचा जाता है|क्योंकि मुर्गा खाने के नाम से मांस खाने वाले सिर्फ चूजो का टांग वगैरा को ही चमड़ी उधेड़कर और उसे टुकड़े टुकड़े में कटवाकर तौलकर ले जाते हैं|बाकि सब बेचने वालो को मानो चुजो की प्राण लेने की सुपारी लेने के बदले मुफ्त में मिल जाती है|जिसे वे थोड़े कम पैसो वालो को जिन्हे भी मुर्गा के नाम से दरसल चूजा खाने का बड़ा मन करता है,वे कम किमत में उसकी चमड़ा पांव मुंडी पंख अतड़ी वगैरा से ही काम चला लेते हैं|हलांकी कभी कभार वे भी मांस तो जरुर खाते ही होंगे|आजकल तो वैसे भी चाईनिज फूड की तरह शहर के सड़को के किनारे भी चूजो का मांस मुर्गा मांस कहकर बोटी बोटी करके रोटी के साथ में भी खुब सारी बिकती है|जो होटल वगैरा में तो वैसे भी पहले से ही असली जवान मुर्गा के रुप में बिकते आ रही थी|पर जबसे शिशु व बच्चे चूजो की उत्पादन अप्राकृत तरिके से समय से पहले मुर्गा मुर्गी के चूजो को शारिरिक रुप का आकार बड़ो के जैसा मांस खाने का आधुनिक शाईनिंग और डीजिटल आविष्कार करके चूजो की नर्म मांस क्रांती आई है तबसे मुर्गा मांस के नाम से ज्यादेतर चूजो की ही मांस खाने का प्रचलन घर और बाहर दोनो ही जगह अब दिन प्रतिदिन बड़ते जा रही है|खैर मैं शाकाहारी रुगड़ा के बारे में लिखते लिखते मांशाहारी चूजा के बारे में लिखते ही चला जा रहा हूँ,जिसे विराम देते हुए अब मैं रुगड़ा के बारे में मेरे बचपन में घटी एक रोजमरा जिवन की खेलते खुदते मनोरंजन करते हुए घटना के बारे में फिर से लिख रहा हूँ|तब जैसा कि मैने बतलाया बारिस के मौसम में रुगड़ा मिलती है,इसलिये यह रुगड़ा से जुड़ी किमती पल बारिस के समय में ही गुजर रही थी जो कि उन दिनो मेरी जिवन में आम बात हुआ करती थी|चूँकि हम जहाँ पर हरी भरी प्राकृत के बिच में रहते थे वहाँ पर जमकर खेती भी होती थी|और वह क्षेत्र शहरी और ग्राम दोनो की ही मिली जुली रुप थी|इसलिये उस जगह में हल और ट्रेक्टर दोनो से ही खेतो को जोता जाता था|जो मुमकिन है वहाँ पर अभी भी जोता जाता होगा|जिसके बारे में अभी मैं पुरी तरह से निश्चित जानकारी नही दे सकता पर कुछ साल पहले तक मैं वहाँ पर गया था,वह क्षेत्र अभी भी वैसा ही हरा भरा है|हाँ उसके आस पास के क्षेत्रो को शहरीकरन का संक्रमण धिरे धिरे जकड़ती जा रही है|पर मैने बचपन वहाँ पर गुजारा है उस समय बारिस के मौसम में नदियाँ उफान पर होती थी|जाहिर है खेत भी लहलहाती थी|जिसके लहलहाने से पहले जब खेत को जोती जाती थी तो चूँकि मिट्टी निचे से उपर को पल्टी मारती थी|इसलिये मिट्टी से निचे की सारी चीजे उपर की ओर आसानी से भारी मात्रा में निकल जाती थी|जैसा कि रुगड़ा के मामले में भी था|चूँकि रुगड़ा जिस क्षेत्र और जिस मिट्टी पर उगता है,वहाँ पर काफी मात्रा में थोड़ी थोड़ी दुर पर उगता है|इसलिये जब बहुत बड़ा क्षेत्र को खेती करने के लिये ट्रेक्टर से जोता जाता था तो मानो उपर से होने वाली बारिस के मौसम में धरती निचे से उपर रुगड़ो की बारिस होने लगती थी|जो कि ट्रेक्टर द्वारा खेत जोतते समय मिट्टी के उलट पुलट होते समय गोल गोल खुब सारे रुगड़ो के रुप में निकलती थी|जिस ट्रेक्टर के पिच्छे पिच्छे हम बचपन में बहुत सारे एक साथ दोस्त रिस्तेदार जमिन से निचे निकल रही रुगड़ा  को चुनने के लिये तेजी से बड़ी मैदानी नुमा खेत को जोतती ट्रेक्टर के पिच्छे पिच्छे दौड़ते हुए रुगड़ा चुनते थे|चूँकि रुगड़ा की बारिस के मौसम में उचित समय आते ही रुगड़ा की भी बारिस होने लगती थी,जब रुगड़ा से भरी हुई खेत में ट्रेक्टर चलती थी|जिसे ज्यादे से ज्यादे चुनने के लिये जिस तरह कुंभ के मेले में भक्त गंगा में डुबकी लगाने के लिये एक साथ बहुत सारे टुट पड़ते हैं,उसी प्रकार हम भी बचपन में बहुत सारे दोस्त रिस्तेदार और पड़ौसी एक साथ टुट पड़ते थे मिट्टी में नहाते हुए रुगड़ा चुनने के लिये|ट्रेक्टर जमिन को चिरते हुए खेत जोतते हुए तेजी से आगे की ओर बड़ती जाती थी और हम बचपन में बहुत सारे बच्चे एक साथ उसके पिच्छे पिच्छे भागते हुए कौन सबसे अधिक रुगड़ा चुनेगा इसकी मानो प्रतियोगिता चलती थी|जिसे जितने के लिये रुगड़ा कि छिना झपटी ऐसी होती थी जैसे मानो  ट्रेक्टर कौन ज्यादे रुगड़ा चुनेगा इसकी चुनौती देते हुए अपने पिच्छे पिच्छे नोटो की बारिस करते हुए जा रहा हो जिसे सभी बच्चे छिना झपटी करके ज्यादे से ज्यादे चुनने में लगे हो|वैसे अभी के हिसाब से तो उस समय रुगड़ा कोई नोट से कम नही थी|क्योंकि जहाँ तक मुझे याद है वर्तमान में जिस तरह कि किमत खशी से महंगी रुगड़ा की किमत है,उसके हिसाब से उस समय हम बचपन में आधा एकात किलो तो रुगड़ा चुन ही लेते होंगे जब ट्रेक्टर खेत में चलती थी और रुगड़ा उगने का ही मौसम होता था|और एक किलो खशी जितनी किमत बचपन में यदी हमे मिल जाती तो उस समय तो मैं और मेरे बचपन के दोस्त रिस्तेदार अपने माता पिता जो की नौकरी और समय मिलने पर वे भी रुगड़ा खुखड़ी जरुर चुनते थे उनकी रोज की नौकरी वाली हाजरी से तो निश्चित तौर पर ज्यादे थी|पर चूँकि हम उसे कभी बेचे नही थे और यदि उस समय बेचते भी तो रुगड़ा खुखड़ी की किमत कम थी इसलिये हमे रुगड़ा खुखड़ी सायद आजकल शहर में मिलने वाली टॉफी बिसकिट से भी कम किमती लगती थी|क्योंकि मुझे याद है कि मैं और एक दो दोस्तो के पास ही टॉफी और बिसकिट हमेशा खरिद के खाते रहे ऐसी नजारा हम दोस्तो के बिच मध्य विद्यालय में पढ़ते समय मिलती थी|जिसमे भी मैं खुदकी बड़ाई करना न चाहकर भी ये जरुर लिखना चाहुँगा चाहे कोई मेरी बातो पर विश्वाश करे या न करे कि हमारे बिच में गिने चुने दो चार रोज रोज कुछ न कुछ खरिदकर खाने वाले दोस्तो में मुझे याद है एक मैं ही अकेला ऐसा दोस्त था जिसके पास गरिब अमिर दोनो की जिवन जिने की हालात मौजुद थी|मेरे पिता केन्द्र के कर्मचारी थे पर फिर भी हम चूँकि ग्रामीण जिवन और शहरी जिवन दोनो ही तरह का जिवन जिये हैं,इसलिये बचपन से किशोर अवस्था तक मैं ग्रामीण और शहरी दोनो तरह का जिवन जीया हूँ|इसलिये कोई रहिस दोस्त भी मुझे किसी रहिस खाना पर तब भी चुनौती.अचानक लिखते लिखते मुझे झपकी आ रही है इसलिये मैं अब सोने जा रहा हूँ,आगे मैं इस अधुरी पोस्ट को अगला भाग के रुप में पुरा करुँगा,क्योंकि अब मैं विचार कर रहा हूँ कि मैं अपने ब्लॉग में अपने निजि जिवन में घटित घटना के बारे में और अपने जिवन व विचार के बारे में ज्यादे लिखूँगा|खासकर अपने बचपन के बारे में जो कुछ भी मेरे लिये यादगार लम्हा है,हो सके तो उसे बांटने की कोशिष करुँगा|जो यदि जिस किसी को भी पसंद आ रहा हो तो इसे ज्यादे से ज्यादे लोगो को बांटे और उन्हे भी मेरे और मेरे गरिब बलॉगर साईट के बारे में जरुर बतलाकर मुझे ऐसी जानकारी और भी अधिक लिखने में प्रेरित करें अन्यथा मेरी पोस्ट पढ़ने वालो की तादार कम होने पर मैं ऑनलाईन साईट में लिखने से ज्यादे कॉपी किताब लिखने वगैरा में ज्यादे दिलचस्पी लेने लगता हूँ|जो कम लिखकर अब मैं ज्यादे से ज्यादे ऑनलाईन लिखकर पुरे विश्वभर में अपनी पोस्ट को बांटना चाहता हूँ|इसलिये इसके लिये मुझे मेरे पोस्ट को पसंद करने वालो की सहायता की जरुरत है|जोकि अबतक न के बराबर मुझे मिल रही है|जिनको यदि मुझसे कुछ और भी अधिक इसी तरह की कुछ लिखवाने में दिलचस्पी हो तो मेरा समर्थन करके इसे और भी अधिक लोगो तक पहुँचायें|जिनमे से जो भी सहायता थोड़ी बहुत मिल रही है उन सभी लोगो का मैं शुक्रिया अदा करते हुए मैं उनसे गुजारिश करना चाहता हूँ कि भले उन्हे मुझमे थोड़ी बहुत बुराई नजर आती हो पर वे इस बात के लिये निश्चित रहे कि मैं रोजमरा जिवन और असल जिवन में इस अनजान ऑनलाईन दुनियाँ से कहीँ ज्यादे उनके लिये बेहत्तर इंसान साबित जरुर हुँगा ये मैं विश्वाश दिलाता हूँ|भले अबतक मैं बहुत सी नीजि जानकारी को नही बांट पाया हूँ|जिसकी झांकी में मेरे बारे में सिर्फ इतना जान ले पुरी दुनियाँ की मेरे जिवन का मूल मंत्र है कि शराब शबाब और कबाब इन तीन चीजो से खुदको दुर रखने वाला इंसान अपनी जिवन में खुदके द्वारा अपने आप को भी कम हानि पहुँचाता है,और दुसरो को भी कम हानि पहुँचाता है|जिसे मैं अपनी निजि जिवन में प्रयोगिक तौर पर जी रहा हूँ|और दूसरो को भी जीने की सलाह अक्सर देता रहता हूँ|जिसमे कोई जोर जबरजस्ती नही है|क्योंकि मानो दोनो ही एक दुसरे के पुरक बन गए हैं|अब न तो हरित क्रांती को रोकी जा सकती है|और न ही पिंक क्रांती को रोकी जा सकती है|रही बात शराब शबाब की तो इसकी व्यापार में मौजुदगी आधुनिकता और विकाश के नाम से  मेरे ख्याल से शुद्ध खाने पिने की चीजो से भी ज्यादे बड़ते जा रही है|और इसकी किमत भी आसमान से सिधे अंतरिक्ष में जा चुकि है|जिसे यह कहा जा सकता है कि शराब और शबाब की किमत अब करोड़ो में आकी जाने लगी है|जिसकी जानकारी गूगल सर्च मारने में भी मिलती है|और मीडिया द्वारा मिलती है कि कैसे शराब शबाब के शौकिन लाखो करोड़ो देकर भी उसकी नशा पाप की दौलत इकठा करके भी कर रहे हैं|जिसकी नशा करने के लिये इतिहास में वैसे भी बहुत सारी लूटमार हुई है|जिसके पुरानी कबिलई विरासत बारे में भी मैं कभी जरुर लिखूँगा|तबतक के लिये फिलहाल शुभ रात्री जल्दी से करने का मन कर रहा है!क्योंकि निंद बर्दाश्त अब बिल्कुल भी नही हो रही है|निंद और खाना ही तो फिलहाल मेरी सबसे बड़ी कमजोरी और ताकत है|जिसके बगैर मैं खुदको अधुरा महसुश करता हूँ|जो कि मेरे ख्याल से पुरी दुनियाँ के लिये भी अधुरा है|क्योंकि मेरे विचार से जिसदिन भी पुरी दुनियाँ में सभी लोग भरपुर अच्छी निंद और पेटभर पोषित भोजन लेने की हालत में आ जायेंगे अथवा पुरी दुनियाँ से गरिबी भुखमरी पुरी तरह से मिट जायेगी उसदिन मेरे ख्याल से पुरी दुनियाँ में मानवता और पर्यावरण संतुलित होकर सुख शांती और समृद्धी आने के साथ साथ सभी इंसानो के लिये मोक्ष से ज्यादे जरुरत इंसानो की उम्र को कैसे बड़ाया जाय या अमर कैसे बना जाय इसपर ज्यादे विचार होने लगेगी|फिलहाल तो ज्यादेतर इंसान पेट भरने और अच्छी निंद लेने के पिच्छे ही दिन रात अपना सबसे अधिक समय बिता रहा है|जो कि मैं भी फिलहाल रोजमरा जिवन में इसी को ही सबसे अधिक किमती मानता हूँ|जिसमे से निंद के लिये आजकल मैं समय बहुत मुश्किल से अतिरिक्त समय निकाल पा रहा हूँ|क्योंकि आँख खुलते ही सुरु हो जाता हूँ अपनी संघर्ष को उसके अंजाम तक पहुँचाने की कोशिष में!हिन्दु समय अनुसार चूँकि सुर्य उगने के बाद सुबह और सुर्य डुबने के बाद रात मानी जाती है,इसलिये जाहिर है हिन्दी लिखते हुए अभी सुबह नही हुए हैं|पर अंग्रेजी समय अनुसार सुबह के 4:11 AM बज रहे हैं|शुभ रात्री!हिन्दी में शुभ रात्रि और अंग्रेजी में Good morning!

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